भारतीय राजनीति में तुष्टिकरण (appeasement) शब्द कोई नया नहीं है। आज़ादी के बाद से लेकर वर्तमान समय तक यह शब्द अनेक राजनीतिक बहसों का केंद्र रहा है। खासकर कांग्रेस पार्टी पर यह आरोप बार-बार लगता रहा है कि उसने वोट बैंक की राजनीति के लिए कुछ विशेष वर्गों को प्राथमिकता दी, और यही तुष्टिकरण कहलाया। इस ब्लॉग में हम समझने की कोशिश करेंगे कि कांग्रेस और तुष्टिकरण की राजनीति का इतिहास क्या रहा है, इसके पीछे के कारण क्या हैं, और इसका देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था पर क्या असर पड़ रहा है।
🔹 1. तुष्टिकरण की राजनीति का अर्थ क्या है?
तुष्टिकरण का सामान्य अर्थ होता है — किसी विशेष समुदाय, वर्ग या समूह को राजनीतिक लाभ, योजनाएं या विशेष अधिकार देकर संतुष्ट करना, ताकि उन्हें वोट के रूप में अपने पक्ष में बनाए रखा जा सके।
राजनीति में तुष्टिकरण तब विवादास्पद हो जाता है जब सरकार या राजनीतिक दल राष्ट्रीय हित की बजाय केवल वोट के लिए नीतियाँ बनाते हैं जो बहुसंख्यक समाज को विभाजित करती हैं।
🔹 2. कांग्रेस पर तुष्टिकरण के आरोप कैसे शुरू हुए?
कांग्रेस पर तुष्टिकरण के आरोप स्वतंत्रता के समय से ही लगने लगे थे:
📌 नेहरू युग और मुस्लिम लीग से संवाद
पंडित नेहरू ने विभाजन के बाद मुस्लिमों के अधिकारों की रक्षा पर बल दिया, जो जरूरी था।
परंतु विरोधियों ने इसे "मुस्लिम तुष्टिकरण" के रूप में प्रचारित किया।
📌 शाह बानो केस (1985)
सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो नाम की मुस्लिम महिला को गुज़ारा भत्ता देने का आदेश दिया।
कांग्रेस सरकार ने उस फैसले को पलटते हुए मुस्लिम पर्सनल लॉ की रक्षा की, जिसे "मुस्लिम तुष्टिकरण" कहा गया।
इसे आज भी कांग्रेस की सबसे बड़ी सेक्युलर छवि पर सवाल उठाने वाली घटना माना जाता है।
🔹 3. वोट बैंक की राजनीति का उदय
कांग्रेस ने शुरुआत में एक समावेशी पार्टी के रूप में काम किया लेकिन धीरे-धीरे उसके निर्णय कुछ समुदायों की तरफ झुके हुए दिखने लगे:
🔸 मुस्लिम वोट बैंक
कांग्रेस पर आरोप है कि उसने मुस्लिम समुदाय को सिर्फ वोट के रूप में देखा।
शिक्षा, रोजगार, या विकास के क्षेत्र में ज़मीनी बदलाव के बजाय केवल भावनात्मक मुद्दों पर केंद्रित नीतियाँ बनाईं।
🔸 दलित और पिछड़ा वर्ग
कांग्रेस ने पिछड़े वर्गों और दलितों को साथ जोड़ा, पर कई बार इन्हें केवल प्रतीकात्मक रूप से स्थान दिया गया।
असली सशक्तिकरण की जगह केवल योजनाओं की घोषणाएं होती रहीं।
🔹 4. क्या तुष्टिकरण कांग्रेस का रणनीतिक एजेंडा है?
इस प्रश्न का उत्तर पूरी तरह से "हां" या "ना" में देना कठिन है। लेकिन कुछ उदाहरण इस बात की पुष्टि करते हैं कि कांग्रेस ने जानबूझकर ऐसी नीतियाँ अपनाईं जिनसे विशेष वर्गों को लुभाया जा सके:
📌 उदाहरण 1: चुनाव घोषणापत्र में धर्म आधारित योजनाएं
कई बार कांग्रेस के घोषणापत्र में मुस्लिम छात्रों के लिए विशेष छात्रवृत्ति, मदरसों को सहायता जैसी योजनाएं प्राथमिकता में रहती हैं।
वहीं, दूसरी धार्मिक या सांस्कृतिक गतिविधियों को "सांप्रदायिक" ठहराया जाता है।
📌 उदाहरण 2: सेक्युलरिज़्म बनाम वोट बैंक
कांग्रेस खुद को "सेक्युलर" पार्टी कहती है, लेकिन यह सेक्युलरिज़्म कई बार वोट बैंक की राजनीति में बदल जाता है।
राम मंदिर जैसे मुद्दों पर कांग्रेस की भूमिका बहुस्तरीय और दुविधात्मक रही है।
🔹 5. इसके दुष्परिणाम क्या हुए?
तुष्टिकरण की राजनीति के कई गहरे प्रभाव सामने आए हैं:
❌ 1. सामाजिक विभाजन
समाज में "हम बनाम वो" की भावना बढ़ी है।
बहुसंख्यक वर्ग में यह भावना पैदा हुई कि सरकारें उनके साथ अन्याय कर रही हैं।
❌ 2. योग्यता की अनदेखी
कई बार योजनाओं और अवसरों में धर्म या जाति का आधार महत्वपूर्ण बन गया, जिससे योग्य लोगों को नुकसान हुआ।
❌ 3. सांप्रदायिक तनाव और ध्रुवीकरण
जब सरकारें एक विशेष वर्ग को बार-बार प्राथमिकता देती हैं, तो बाकी समाज में असंतोष बढ़ता है।
यह ध्रुवीकरण चुनावी लाभ तो देता है, लेकिन राष्ट्र को दीर्घकालिक नुकसान पहुंचाता है।
🔹 6. क्या यह केवल कांग्रेस की समस्या है?
यह ज़रूरी है कि हम केवल कांग्रेस को ही तुष्टिकरण के लिए जिम्मेदार न ठहराएं। भारत की राजनीति में अधिकांश दलों ने वोट बैंक के लिए इस मार्ग को अपनाया है — चाहे वह क्षेत्रीय दल हों या राष्ट्रीय।
पर कांग्रेस पर यह आरोप इसलिए ज़्यादा लगते हैं क्योंकि वह लंबे समय तक सत्ता में रही और उसने खुद को धर्मनिरपेक्षता का झंडाबरदार बताया।
🔹 7. समाधान क्या हो सकता है?
राजनीति में हर वर्ग की भागीदारी जरूरी है, लेकिन वोट बैंक के बजाय देशहित में नीतियाँ बननी चाहिए।
✅ 1. सच्चा सेक्युलरिज़्म:
जहाँ सभी धर्मों को समान सम्मान मिले, न कि विशेषाधिकार।
✅ 2. नीति आधारित राजनीति:
जनसंख्या के आधार पर नहीं, बल्कि ज़रूरत और योग्यता के आधार पर योजनाएं बनें।
✅ 3. शिक्षा और जनजागरूकता:
लोगों को यह समझना होगा कि तुष्टिकरण से समाज का नुकसान होता है और केवल कुछ नेताओं को फायदा।
निष्कर्ष :
"कांग्रेस और तुष्टिकरण की राजनीति: क्या वोट बैंक ही बन गया है असली एजेंडा?" — इस सवाल का उत्तर भारत के लोकतंत्र के भविष्य से जुड़ा हुआ है। कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी से यह अपेक्षा की जाती है कि वह राष्ट्रहित को प्राथमिकता दे, न कि केवल चुनावी लाभ को।
अगर भारत को एकता, विकास और न्याय के मार्ग पर आगे बढ़ाना है तो सभी राजनीतिक दलों को तुष्टिकरण से ऊपर उठकर नीति, नियत और निष्पक्षता के साथ काम करना होगा। लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब वोट देने वाला आम नागरिक समझदारी से फैसला लेगा।
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